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याभि॒: पत्नी॑र्विम॒दाय॑ न्यू॒हथु॒रा घ॑ वा॒ याभि॑ररु॒णीरशि॑क्षतम्। याभि॑: सु॒दास॑ ऊ॒हथु॑: सुदे॒व्यं१॒॑ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yābhiḥ patnīr vimadāya nyūhathur ā gha vā yābhir aruṇīr aśikṣatam | yābhiḥ sudāsa ūhathuḥ sudevyaṁ tābhir ū ṣu ūtibhir aśvinā gatam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

याभिः॑। पत्नीः॑। वि॒ऽम॒दाय॑। नि॒ऽऊ॒हथुः॑। आ। घ॒। वा॒। याभिः॑। अ॒रु॒णीः। अशि॑क्षतम्। याभिः॑। सु॒ऽदासे॑। ऊ॒हथुः॑। सु॒ऽदे॒व्य॑म्। ताभिः॑। ऊँ॒ इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म् ॥ १.११२.१९

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:112» मन्त्र:19 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:36» मन्त्र:4 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:19


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब स्त्री-पुरुष को कैसे और कब विवाह करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) पढ़ने-पढ़ानेहारे ब्रह्मचारी लोगो ! तुम (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (विमदाय) विविध आनन्द के लिये (पत्नीः) पति के साथ यज्ञसम्बन्ध करनेवाली विदुषी स्त्रियों को (न्यूहथुः) निश्चय से ग्रहण करो, (वा) वा (याभिः) जिन रक्षाओं से (अरुणीः) ब्रह्मचारिणी कन्याओं को (घ) ही (आ, अशिक्षतम्) अच्छे प्रकार शिक्षा करो और (याभिः) जिन रक्षादि क्रियाओं से (सुदासे) अच्छे प्रकार दान करने में (सुदेव्यम्) उत्तम विद्वानों में उत्पन्न हुए विज्ञान को (ऊहथुः) प्राप्त कराओ, (ताभिः) उन रक्षाओं से विद्या (उ) और विनय को (सु, आ, गतम्) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये ॥ १९ ॥
भावार्थभाषाः - सुख पाने की इच्छा करनेवाले पुरुष और स्त्रियों को धर्म से सेवित ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्या और युवावस्था को प्राप्त होकर अपनी तुल्यता से ही विवाह करना योग्य है अथवा ब्रह्मचर्य ही में ठहर के सर्वदा स्त्री-पुरुषों को अच्छी शिक्षा करना योग्य है क्योंकि तुल्य गुणकर्मस्वभाववाले स्त्री-पुरुषों के विना गृहाश्रम को धारण करके कोई किञ्चित् भी सुख वा उत्तम सन्तान को प्राप्त होने में समर्थ नहीं होते, इससे इसी प्रकार विवाह करना चाहिये ॥ १९ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ स्त्रीपुंसाभ्यां कथं कदा विवाहः कार्य इत्याह ।

अन्वय:

हे अश्विनाध्यापकाध्येतारौ युवां याभिरूतिभिर्विमदाय पत्नीर्न्यूहथुः। याभिरूतिभिररुणीर्घैवाशिक्षतम्। याभिः सुदासे सुदेव्यमूहथुश्च ताभिर्विद्या उ विनयं स्वागतम् ॥ १९ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (याभिः) (पत्नीः) पत्युर्यज्ञसंबन्धिनीर्विदुषीः (विमदाय) विविधानन्दाय (न्यूहथुः) नितरां वहतम् (आ) (घ) एव (वा) पक्षान्तरे (याभिः) (अरुणीः) ब्रह्मचारिणीः कन्याः (अशिक्षतम्) पाठयतम् (याभिः) (सुदासे) सुष्ठुदाने (ऊहथुः) प्राप्नुतम् (सुदेव्यम्) सुष्ठु देवेषु विद्वत्सु भवं विज्ञानम् (ताभिः०) इति पूर्ववत् ॥ १९ ॥
भावार्थभाषाः - सुखं जिगमिषुभिः पुरुषैः स्त्रीभिश्च धर्मसेवितेन ब्रह्मचर्य्येण च पूर्णां विद्यां युवावस्थां च प्राप्य स्वतुल्यतयैव विवाहः कर्त्तव्योऽथवा ब्रह्मचर्य एव स्थित्वा सर्वदा स्त्रीपुरुषाणां सुशिक्षा कार्या नहि तुल्यगुणकर्मस्वभावैर्विना गृहाश्रमं धृत्वा केचित् किञ्चिदपि सुखं सुसंतानं प्राप्तुं शक्नुवन्त्यत एवमेव विवाहः कर्त्तव्यः ॥ १९ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सुख प्राप्त करण्याची इच्छा असणाऱ्या स्त्री-पुरुषांनी धर्मयुक्त ब्रह्मचर्य पालन करून पूर्ण विद्या व युवावस्था प्राप्त करून आपल्यासारख्याशीच विवाह करणे योग्य आहे. ब्रह्मचर्यात राहून सदैव स्त्री-पुरुषांनी शिक्षणाचे कार्य करणे योग्य आहे. कारण समान गुणकर्म स्वभाव असणाऱ्या स्त्री पुरुषांशिवाय गृहस्थाश्रम धारण करून एखादी व्यक्ती किंचितही सुख प्राप्त करू शकत नाही व उत्तम संतान प्राप्त करण्यास समर्थ होऊ शकत नाही. त्यासाठी अशा प्रकारे विवाह केला पाहिजे. ॥ १९ ॥